- 1799 स्वतंत्रता संग्राम और काशी के बाबू जगत सिंह
- देश में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 में नहीं वरन् काशी में 14 जनवरी 1799 को हुआ था।
- इतिहास कुछ तथ्यों से हमें परिचित कराता है और कुछ तथ्यों को छिपाता भी है।
- काशी में 1799 को हुई कत्लोगारत की कहानी कहता अंग्रेजों की कब्रें आज भी जमीन पर जिंदा प्रमाण है।
- बितानी हुकूमत से छुटकारे के लिए 1857 को हम स्वतंत्रता के लिए प्रथम युद्ध की संज्ञा देते हैं।
वाराणसी।। काशी में 1799 को हुई कत्लोगारत की कहानी कहता अंग्रेजों की कब्रें आज भी जमीन पर जिंदा हैं प्रमाण। वहीं इन कब्रों को खोज कर निकलने वाले मेजर डॉ. अरविंद कुमार सिंह एनसीसी के राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित बयां कर रहे हैं, कि 1799 की बगावत का दस्तावेजी हिस्सा जो आज भी वाराणसी में जगतगंज कोठी की दीवारों पर देखा जा सकता है।
225 वर्ष, पूर्व के इतिहास को खंगालना और इतिहास के गर्त से ऐसे दस्तावेजों को निकालना जो काशी ही नहीं वरन पूरे देश के होश उड़ा दे, एक चुनौती पूर्ण कार्य था, बाबू प्रदीप नारायण सिंह ने यह बीड़ा उठाया और चुनौती को हकीकत में बदल दिया। उन्होंने एक रिसर्च कमेटी बनाई और सबके प्रयास तथा ब्रिटिश आर्काइव से प्राप्त दस्तावेजों से, 1799 की जो हकीकत बयान हुई, उससे पता चला, देश में पहला स्वतंत्रता संग्राम 1857 में नहीं वरन् काशी में 14 जनवरी 1799 को हुआ था।
बनारस के विस्मृत नायक बाबू जगत सिंह नामक मूल पुस्तक को छपने हेतु देने के समय से ही तथ्यों की तलाश प्रक्रिया अनवरत जारी है। जो अब जगत सिंह रॉयल फैमिली प्रोजेक्ट के अभिन्न अंग बनारस के मेजर डॉ. अरविन्द कुमार सिंह और विख्यात पर्यटक गाइड अशोक आनन्द के साथ इस अनुवाद को सजाने-सँवारने में रेवेनशाह यूनिवर्सिटी कटक के इतिहास विभाग से पी.एच.डी. कर रहे शान कश्यप, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के हिन्दी विभाग के प्रो. प्रभात मिश्रा, अशोक आनन्द जी ने अशोक मिशन एजुकेशनल सोसाइटी के तत्त्वावधान में डॉ. सुभाष चन्द्र यादव, क्षेत्रीय पुरातत्त्व अधिकारी, वाराणसी द्वारा बनारस के विस्मृत नायक बाबू जगत सिंह पुनर्मूल्यांकन विषय पर 20 जनवरी 2024 को एकल व्याख्यान का आयोजन किया।
शोधकर्ता मेजर डॉ. अरविंद कुमार सिंह ने बताया कि मंगल पांडे की समय से पहले चलाई गई एक गोली ने जंगे आजादी के लिए की गई बगावत को हासिये पर डाल दिया। 1857 की ये बगावत हमारी आजादी को 1947 तक खींच कर ले गई, बितानी हुकूमत से छुटकारे के लिए 1857 को हम स्वतंत्रता के लिए प्रथम युद्ध की संज्ञा देते हैं।
इस बगावत के विफल होने के पीछे कई कारण थे।
- एक साथ एक समय पर बगावत का न होना।
- बगावत के लिए आवश्यक सामग्री का न होना।
- अंग्रेजों का समय से पहले सतर्क हो जाना।
- ब्रितानी हुकूमत के अनुपात में युद्ध सामग्री का न होना।
कुछ ऐसे अनेक कारण थे जिसने बगावत को विफल कर दिया। कुछ ऐसा ही हम इतिहास के पन्नों में आज तक पढ़ते चले आ रहे हैं, कहते हैं इतिहास कुछ तथ्यों से हमें परिचित कराता है, तो कुछ तथ्यों को छिपाता भी है, 1857 के पूर्व भी एक बगावत ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ काशी में हुई थी, इस तथ्य को लेकर हमारे समक्ष अभी हाल में एक पुस्तक आई है। इतिहास के आईनो से जब हम धूल साफ करते हैं, तो कागजात और तथ्यों की रोशनी में बाबू जगत सिंह का नाम उभर कर सामने आता है।
इतिहासकार एवं लेखक डॉ. हमीद अफाक कुरैशी और श्रेया पाठक द्वारा लिखित पुस्तक द लास्ट हीरो ऑफ बनारस कहती है, 1799 में ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ काशी में बगावत ब्रितानी हुकूमत के प्रति आक्रोश तो था ही, लेकिन एक दूसरी वजह उस वक्त के गवर्नर जनरल द्वारा 24 दिसंबर 1798 को अंग्रेज अधिकारी चेरी को, वजीर अली के संदर्भ में दिया गया निर्देश भी था। उसने अपने पत्र में कुछ शर्तों के साथ वजीर अली को कोलकाता स्थानांतरित करने का निर्देश चेरी को दिया था, वजीर अली को या मंजूर नहीं था, इधर काशी में जमीदारों के खिलाफ की जा रही कार्रवाई से यहां की जमीदार भी रुष्ट थे।
एक दिलचस्प घटनाक्रम के अंतर्गत बाबू जगत सिंह और वजीर अली की मुलाकात होती है। एक दिन जगत सिंह के पुत्र लक्ष्मी नारायण अपनी सवारी में निकले, दूसरी ओर से वजीर अली भी सैर सपाटे पर निकले थे, घटना 1798 की है दोनों की सवारी आमने-सामने पड़ी, वजीर अली उस युवक से बहुत प्रभावित हुए, परिचय हुआ, युवक के परिवार, रुतबे और रूआब से वह बहुत प्रभावित हुए, उन्होंने लक्ष्मी नारायण को एक कंठहार पहनाया। लक्ष्मी नारायण ने अपने पिता से यह पूरा घटनाक्रम जाकर बताया। जगत बाबू ने वजीर अली का छुपा संदेश कंठहार के रूप में देखा और समझा, वह समझ गए कि वजीर अली उनके साथ अच्छे संबंध बनाना चाहते हैं।
जगत सिंह ने वजीर अली से मिलने का समय मांगा, दोनों मिले और गहरे दोस्त बन गए। मुलाकात होती गई और ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ बगावत की लकीर गहरी होती गई, इस बगावत में वजीर अली जहां खुल्लम-खुल्ला ब्रितानी हुकूमत के सामने था, वही लोगों को संगठित और लामबंद करना, धनराशि का मुहैया कराना, जगत बाबू की रणनीति का हिस्सा था। वजीर अली को अपने सभी कार्यों में जगत सिंह जैसे एक जोशीले, जोरदार, सक्रिय और क्रियाशील व्यक्ति द्वारा बनारस की जमीदारों और निवासियों को लामबंदी करने में मदद मिली। बाबू जगत सिंह 5 वर्षों से इस सशस्त्र संघर्ष की प्रतीक्षा कर रहे थे, आखिरकार 14 जनवरी 1799 को सशस्त्र प्रतिरोध को शुरू करने की तारीख मुकर्रर की गई।
14 जनवरी 1799 की योजना की सफलता के लिए बेटाबुर की छावनी में तैनात ब्रिटिश सेना और मंडुवाडीह में घुड़सवार सेना को बाधित करने की योजना बनाई गई। उपरोक्त सभी गतिविधियों के लिए जगत सिंह ने शहर के भीतर 42 घोड़े और 1300 पैदल सैनिक तथा बनारस के परिवेश में 50 घोड़े और 9900 पैदल सैनिक की व्यवस्था की, इसके अतिरिक्त घाटों और अन्य इलाकों में 1545 लोग इस युद्ध के लिए एकत्रित किए गए, कुल 12837 सैनिक तैनात किए गए। इतने कम समय में इतने लोगों का एक स्थान पर एकत्रित होना, जगत बाबू की कार्य कुशलता और व्यक्तित्व का परिचायक था। 13 जनवरी 1799 को सूर्यास्त के थोड़ी देर बाद चेरी का एक चपरासी जो वजीर अली के दरवाजे पर तैनात था, वह आया उसने जमादार चैन सिंह को बताया कि वजीर अली 14 जनवरी 1799 को नाश्ते के लिए चेरी के यहां आमंत्रित है।
आखिरकार 14 जनवरी 1799 को वजीर अली अपने अनुयायियों के साथ चेरी के घर में प्रवेश किया जो तलवारों और पिस्तौलों से लैस थे, चेरी के निजी सचिव रिचर्ड इवांस भी उपस्थित थे। तारीफों का सामान्य आदान-प्रदान के बाद बातचीत का विषय बनारस से कोलकाता होने वाली वजीर अली के प्रस्थान की ओर बढ़ चला। मामला काफी गर्म हो चला जब यह सब चल ही रहा था, तभी वारिस अली उठ कर खड़ा हुआ और जोर से चिल्लाया “देख क्या रहे हो, इसे मार डालिए” वजीर अली ने जार्ज फ्रेडरिक चेरी को बेस्टकोट के कलर से पकड़ लिया और अपनी कृपाण को उसके सिर पर दे मारा।
चेरी को सतही चोट लगी, वह झपटकर बगीचे की तरफ भागा। लेकिन वारिस अली, नूर मोहम्मद, इमाम अली, रहम अली और मिर्जा मुगल ने उसे धर दबोचा। बारिश अली ने उस पर हमला किया और अपना खंजर उसकी छाती में उतार दिया, अन्य जो पीछे थे उन्होंने चेरी को टुकड़ों में काट डाला। उस दिन वाराणसी में वजीर अली द्वारा काफी कत्लोगारत हुआ, उस दिन के हमले में कुल सात अंग्रेज अफसर मारे गए, मरने वालों में कमांडर चेरी, कैप्टन कानवे, रॉबर्ट ग्राहम और रिचर्ड इवांस शामिल थे।
मृत चारों अंग्रेज अधिकारियों की कब्रे आज भी वाराणसी में मकबूल अलम रोड स्थित ईसाइयों के कब्रिस्तान में मौजूद है। कमांडर चेरी के घर से कुछ दूर वर्तमान के नदेसर में तत्कालीन मजिस्ट्रेट एम. डेविस के घर भी वजीर अली ने अपनी सेना के साथ हमला किया था, जिसमें कुछ संतरी भी मारे गए थे। 14 जनवरी 1799 की इस घटना का कोई भी गवाह आज की तारीख में खोजना मुश्किल है। लेकिन 225 वर्ष के अंतराल के बाद भी काशी की ये कब्रे उस घटना के साक्षी है, और आकाश में चमकता सूरज गवाह है, जो उसे वक्त भी था और आज भी है।
ब्रितानी हुकूमत इस लोम हर्षक हत्या और बगावत से स्तब्ध थी, धर पकड़ जारी हुआ, चेरी का मकबरा काशी में बनाया गया। बाबू जगत सिंह की गिरफ्तारी वजीर अली का साथ देने, साजिश करने, धन और सैनिकों को उपलब्ध कराने के इल्जाम में किया गया।
द लास्ट हीरोआफ बनारस-बाबू जगत सिंह पुस्तक प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 से लगभग 58 वर्ष पूर्व बनारस में जगतगंज राज्य परिवार के पूर्वज बाबू जगत सिंह एवं वजीर अली द्वारा योजनाबद्घ एवं रक्त रंजित सशस्त्र विद्रोह पर प्रकाश डालती हैं। उस विद्रोह की योजना व संचालन बाबू जगत सिंह द्वारा किया गया, परिणाम स्वरूप निजामत अदालत जिसे हम सुप्रीम कोर्ट भी कह सकते हैं के द्वारा बनारस में 22 जुलाई 1799 को बाबू जगत सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई, जिसको तत्कालीन गवर्नर काउंसिल कोलकाता ने अगले ही दिन 23 जुलाई को आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया।
इसके उपरांत उन्हें चुनार दुर्ग स्थित कारागार में बंदी रखा गया और बाद में कोलकाता भेजने का निर्देश पारित किया गया। 10 अगस्त 1799 को जगत बाबू को नदी परिवहन के माध्यम से अंग्रेजों के सशस्त्र बलों की निगरानी में चुनार कारागार से फोर्ट विलियम कारागार कोलकाता के लिए ले जाया गया, और 31 अगस्त 1799 को यह यात्रा पूर्ण हुई। गवर्नर काउंसिल ने 18 अक्टूबर 1799 को जगत बाबू को आजीवन कारावास का स्थान सेंट हेलना द्वीप जो कि दक्षिण अफ्रीका में पड़ता है, निर्धारित किया, जो भारत से सेंट हेलना लगभग 10000 मील और 6140 समुद्री मील पर स्थित है, यह घटना नेपोलियन बोनापार्ट के कारावास से 16 वर्ष पूर्व की है।
19 अक्टूबर 1799 को या फैसला सुनाया गया और 20 अक्टूबर को ही बाबू जगत सिंह को हुगली नदी के रास्ते ऑस्टर्ली नामक जहाज पर रवाना किया गया, किंतु जैसे ही उनकी नाव समुद्र में गंगा सागर के करीब पहुंची बाबू जगत सिंह ने अपने वतन को छोड़ने के बजाय दुनिया छोड़ना बेहतर समझा और उन्होंने गंगा सागर में जहाज से कूद कर जल समाधि ग्रहण कर ली और इतिहास के पन्नों से छूट गई 1799 की यह काशी की बगावत।